प्रायः बचपन से ही मुझे कुछ न कुछ नया करने का शौक रहा है। मैं अपने जीवन में ऐसा महसूस करती हूँ शौक भले ही समय व परिस्थितियों के आधार पर बदलते रहे हैं लेकिन रहे अवश्य हैं। कभी देश-विदेश की टिकटें एकत्रित करना, कभी विभिन्न पौधों के फूल-पत्तियां इकट्ठे कर कर के उनके नाम लिखना कभी टूटी-फूटी चीज़ों को अपने पास एकत्रित करना व कुछ नया बनाना, कभी सिलाई-कढ़ाई, बुनाई इत्यादि के नमूने इकट्ठे करना, कभी ग्रीटिंग कार्ड जमा कर लेने या फिर बाज़ार में प्रचलित आर्ट क्राफ्ट का कुछ भी नया सीखना व सिखाना, उदाहरण के लिए पॉट पेंटिंग, फैब्रिक पेंट, ग्लास पेंट और भी न जाने क्या क्या, अनगिनत। और तो और उत्तर पुस्तिकाओं पर अध्यापकों द्वारा दी गयी शाबाशी की कतरन संभालना कमाल के सकारात्मक पहलू रहे हैं। मेरा जन्म पंजाब के लुधियाना ज़िले में ननिहाल में हुआ लेकिन पालन-पोषण व प्रारंभिक शिक्षा ज़िला जालन्धर के एक ग्राम बिलगा में हुई। मैट्रिक पास करते ही गाँव के नज़दीक पड़ती गाँव की तहसील के महाविद्यालय में प्रवेश पा लिया। वहाँ से स्नातक करने के पश्चात् मैंने बी. एड और फिर राजकीय महाविद्यालय लुधियाना से एम. ए हिंदी की डिग्री प्राप्त कर ली। उन दिनों गणित व विज्ञान का नया नया प्रचलन शुरू हुआ था और माता-पिता भी लडकियों को मेडिकल व नॉन मेडिकल जैसी स्ट्रीम्स में भेजना कुछ हद तक जायज़ समझने लगे थे। यही सोच कर मैंने भी गणित विषय का चयन कर लिया लेकिन गाँव में पंजाबी माध्यम से उठ कर एक दम अंग्रेज़ी माध्यम में यह सब करना मुश्किल लगने लगा। आज की तरह उन दिनों में गाँव में कोई कुछ बताने – समझाने वाला भी नहीं था और न ही आज की तरह इतने साधन थे कि गाँव के बाहर जा कर कहीं अलग से कुछ ट्यूशन इत्यादि ले ली जाए। अतः विषय छोड़ना ही उचित लगा। उन दिनों तो अच्छा नहीं लगा लेकिन आज लगता है कि ईश्वर जो करता है वो अच्छे के लिए ही करता है। आज जीवन में व्यर्थ की गणना कदापि पसन्द नहीं और मेरा यह विषय हिंदी कुछ मेरी पसंद का आभासी प्रतीत होता है। कई बार तो लगता है कि यह मेरे लिए और मैं इस के लिए ही बनी हूँ। अगर व्यर्थ की गणना के अतिरिक्त संवेदनशील ज़िन्दगी व्यतीत करनी हो तो सच में भाषा का विशेष महत्त्व है। और तो और सभी वेद-पुराणों का अध्ययन करने के लिए मुझे हरि द्वारा सुझाए गए इस विषय पर गर्व महसूस होता है। यह तो रही मेरी व मेरी भाषा की बात । अब यहाँ तक इस पुस्तक का सवाल है, मैं अपनी रुचि के अनुसार जीवन में पल-पल, लम्हा-लम्हा किसी न किसी रूप में यादगारी ढंग से समेटती रही हूँ। हर उतार-चढ़ाव व खुशी-ग़मी को साकार रुप से सहेज कर रखना मेरे स्वभाव में सम्मिलित रहा है। शादी के शुरू से लेकर आज तक के लम्हों को व जीवन साथी के प्रति अपने भावों को मैंने समय समय पर स्वतंत्र पंक्तियों में संजोया है, जिन्हें न तो कविता कहा जा सकता है, न गीत, ग़ज़ल व शायरी | मात्र भाव हैं जिन्हें स्वतंत्र पंक्तियों में बाँध कर शाब्दिक भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। क्यों न इन सभी शब्द व पंक्तियों को एक साथ बाँध कर एक पुस्तक का रूप दे दिया जाए, ऐसा विचार आते ही मैंने अपने भाव प्रीत साहित्य सदन के संचालक डा. मनोजप्रीत जी व विदेश में रहते अपने दोनों बच्चों, प्रांशु गुप्ता व रोहन गुप्ता के साथ सांझे किये और उनके प्रोत्साहन से मेरी यह पुस्तक ‘सोने से दिन चांदी सी रातें’ आप सभी के समक्ष है। मेरा प्रयत्न कितना सार्थक है इस के लिए मुझे पाठकों की समीक्षा की विशेष प्रतीक्षा रहेगी।
Sone se din Chaandee see Raaten (सोने से दिन चांदी सी रातें)
प्रायः बचपन से ही मुझे कुछ न कुछ नया करने का शौक रहा है। मैं अपने जीवन में ऐसा महसूस करती हूँ शौक भले ही समय व परिस्थितियों के आधार पर बदलते रहे हैं लेकिन रहे अवश्य हैं। कभी देश-विदेश की टिकटें एकत्रित करना, कभी विभिन्न पौधों के फूल-पत्तियां इकट्ठे कर कर के उनके नाम लिखना कभी टूटी-फूटी चीज़ों को अपने पास एकत्रित करना व कुछ नया बनाना, कभी सिलाई-कढ़ाई, बुनाई इत्यादि के नमूने इकट्ठे करना, कभी ग्रीटिंग कार्ड जमा कर लेने या फिर बाज़ार में प्रचलित आर्ट क्राफ्ट का कुछ भी नया सीखना व सिखाना, उदाहरण के लिए पॉट पेंटिंग, फैब्रिक पेंट, ग्लास पेंट और भी न जाने क्या क्या, अनगिनत। और तो और उत्तर पुस्तिकाओं पर अध्यापकों द्वारा दी गयी शाबाशी की कतरन संभालना कमाल के सकारात्मक पहलू रहे हैं। मेरा जन्म पंजाब के लुधियाना ज़िले में ननिहाल में हुआ लेकिन पालन-पोषण व प्रारंभिक शिक्षा ज़िला जालन्धर के एक ग्राम बिलगा में हुई। मैट्रिक पास करते ही गाँव के नज़दीक पड़ती गाँव की तहसील के महाविद्यालय में प्रवेश पा लिया। वहाँ से स्नातक करने के पश्चात् मैंने बी. एड और फिर राजकीय महाविद्यालय लुधियाना से एम. ए हिंदी की डिग्री प्राप्त कर ली। उन दिनों गणित व विज्ञान का नया नया प्रचलन शुरू हुआ था और माता-पिता भी लडकियों को मेडिकल व नॉन मेडिकल जैसी स्ट्रीम्स में भेजना कुछ हद तक जायज़ समझने लगे थे। यही सोच कर मैंने भी गणित विषय का चयन कर लिया लेकिन गाँव में पंजाबी माध्यम से उठ कर एक दम अंग्रेज़ी माध्यम में यह सब करना मुश्किल लगने लगा। आज की तरह उन दिनों में गाँव में कोई कुछ बताने – समझाने वाला भी नहीं था और न ही आज की तरह इतने साधन थे कि गाँव के बाहर जा कर कहीं अलग से कुछ ट्यूशन इत्यादि ले ली जाए। अतः विषय छोड़ना ही उचित लगा। उन दिनों तो अच्छा नहीं लगा लेकिन आज लगता है कि ईश्वर जो करता है वो अच्छे के लिए ही करता है। आज जीवन में व्यर्थ की गणना कदापि पसन्द नहीं और मेरा यह विषय हिंदी कुछ मेरी पसंद का आभासी प्रतीत होता है। कई बार तो लगता है कि यह मेरे लिए और मैं इस के लिए ही बनी हूँ। अगर व्यर्थ की गणना के अतिरिक्त संवेदनशील ज़िन्दगी व्यतीत करनी हो तो सच में भाषा का विशेष महत्त्व है। और तो और सभी वेद-पुराणों का अध्ययन करने के लिए मुझे हरि द्वारा सुझाए गए इस विषय पर गर्व महसूस होता है। यह तो रही मेरी व मेरी भाषा की बात । अब यहाँ तक इस पुस्तक का सवाल है, मैं अपनी रुचि के अनुसार जीवन में पल-पल, लम्हा-लम्हा किसी न किसी रूप में यादगारी ढंग से समेटती रही हूँ। हर उतार-चढ़ाव व खुशी-ग़मी को साकार रुप से सहेज कर रखना मेरे स्वभाव में सम्मिलित रहा है। शादी के शुरू से लेकर आज तक के लम्हों को व जीवन साथी के प्रति अपने भावों को मैंने समय समय पर स्वतंत्र पंक्तियों में संजोया है, जिन्हें न तो कविता कहा जा सकता है, न गीत, ग़ज़ल व शायरी | मात्र भाव हैं जिन्हें स्वतंत्र पंक्तियों में बाँध कर शाब्दिक भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। क्यों न इन सभी शब्द व पंक्तियों को एक साथ बाँध कर एक पुस्तक का रूप दे दिया जाए, ऐसा विचार आते ही मैंने अपने भाव प्रीत साहित्य सदन के संचालक डा. मनोजप्रीत जी व विदेश में रहते अपने दोनों बच्चों, प्रांशु गुप्ता व रोहन गुप्ता के साथ सांझे किये और उनके प्रोत्साहन से मेरी यह पुस्तक ‘सोने से दिन चांदी सी रातें’ आप सभी के समक्ष है। मेरा प्रयत्न कितना सार्थक है इस के लिए मुझे पाठकों की समीक्षा की विशेष प्रतीक्षा रहेगी।
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